ये समाज ???
ये तीन टाँगों पर लंगड़ाते श्वान सा शिथिल समाज ,
क्यों है बैठा अब ये इतना विचलित सा , समाज ?
इस बार तो फिर अच्छा चल पड़ा है काम काज ,
खाली ठेकेदार को सीधा दुनिया का मिला ठेका आज ।
ब्याह से भागती बेटियों को पकड़ना है इनका काम ,
बचकर रहे ,रहनुमा-ऐ-सरकार ,कह दिया खुले आम ।
'बिगड़ती' बालाओं को सुधारते ये सरेशाम ,
गालियों ,तानों से न हो तो फाँसी के फंदे से लेते काम ।
ये भटकते भिक्षुक सा बेचैन समाज
क्यों है इतना ये संगदिल समाज ?
इस बार तो हो रहे राजनीतिज्ञ भी साथ ,
जाति को तो नंबर प्लेट बनाने की है बात ।
पहले ही बता दो मेरे भाई अहीर, छत्री हो या चर्मकार ,
फिर ना कहना ,आरक्षण नहीं बाँटा ,किया अत्याचार ।
जाति में ही सब रहेगा ,जाति में ही सब बँटेगा ,
यही है हमारा किला ये हमारी चार दीवार ।
रक्त 'गंदा' जो किया किसी ने तो ,
कंठ देगी काट उसका ये तीक्ष्ण तलवार ।
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