संदेश

तुम्हारी यादों की तरह अपने निशां क्यूँ छोड़ गई हो ?

सुनो तुम चली तो गई हो पर तुम्हारी यादों की तरह अपने निशां क्यूँ छोड़ गई हो तुम ? कल सुबह कालीन की धूल की मानिन्द अपने मन से तुम्हारे खयाल झाड़ रहा था मै   उस कालीन पर   तुम्हारी यादों की तरह अपने केसु क्यूँ छोड़ गई हो तुम  ? पुराने तौलिये की मानिंद तुम्हारे साथ बीते लम्हों को कहीं अंधेरी दराज़ में रख रहा था मै उस तौलिये पर तुम्हारी यादों की तरह अपनी महक क्यूँ छोड़ गई हो तुम ? आईने पर जमी गर्त की मानिंद तुम्हारी बातें जहन से मिटा रहा था मै उस आईने पर तुम्हारी यादों की तरह अपनी परछाई क्यूँ छोड़ गई हो तुम ? बिस्तर पर जमीं सलवटों के जैसे तुम्हारी सूरत   दिल से मिटा रहा था मै उस बिस्तर पर तुम्हारी यादों की तरह अपनी छुवन क्यूँ छोड़ गई हो तुम ?   सुनो तुम चली तो गई हो पर तुम्हारी यादों की तरह अपने निशां क्यूँ छोड़ गई हो तुम ?

माँ

कलम हाथ से पकड़ी न जाती लिख तो लेता पर लिखाई समझ न आती उन बेमेल हर्फों में माने तेरी डाँट ने भरे थे माँ बोल न निकलते थे ,तुतलाती थी ज़ुबाँ ,   चाहते थे कुछ , बोलती थी कुछ ज़ुबाँ उन नासमझ बोलों में अर्थ तुमने भरे थे माँ.  हवा से बात करने का शौक था बाबा से लड़कर साइकिल दिलवाई थी तुमने हवा में तो उड़वाया तेरे हाथों के सहारे ने माँ       कहते थे दो बूँद ज़िन्दगी की पीलो बड़े जतन से खुराक पीने को मनाया था तुमने तंदुरुस्ती तो तेरी गोद में पीकर आई थी माँ मफलर दस्ताने लिए सर्दियों से लड़ते थे बाजार से नई उन लेकर बुना था तुमने गर्माहट तो उस स्वेअटर को पहनकर आती थी माँ

चली गईं थीं तुम.......

ईंटें देखता हूँ तो समेट लेता हूँ मै इक छत का अरमां था न तुम्हे खुशियाँ कैद करने को आशियाँ बना लेता हूँ मै पर चली गईं थीं तुम काश होती तो एक ईंट तुम्हारे नाम की समेट लेता भटकते तिनके उठा लेता हूँ मै हवाओं में बसने की तमन्ना थी न तुम्हे सपनों में देखा वो हवाई महल बना लेता हूँ मै पर चली गईं थीं तुम काश होती तो एक तिनका तुम्हारे नाम का उठा लेता गिरती बूँदें झोली में भर लेता हूँ मै बरसात पसंद थी न तुम्हे अपने खुद के बादल बना लेता हूँ मै पर चली गईं थीं तुम काश होती तो एक बूँद तुम्हारे नाम की भर लेता परिंदों से दोस्ती करता फिरता हूँ मै उनका चहचहाना पसंद था न तुम्हे अब इन्हे ही अपनी दास्ताँ सुना लेता हूँ मै पर चली गई थीं तुम काश होती तो एक दोस्त तुम्हारे नाम का बना लेता मै कभी पास से गुजरे कुछ खूबसूरत लम्हे खरीद लेता हूँ मै साथ वक़्त बिताना भाता था न तुम्हे मगर  माहौल ग़मगीन है , आज जनाज़ा है मेरा चली गईं थीं तुम काश होती तो कुछ लम्हे ज़िन्दगी के और उधार ले लेता मै

ई ससुरा समाज भय्या !!

का बताई तोहके ई ससुरा समाज भय्या !! ना बाप बड़ा न भय्या ,सबसे बड़ी पंचातिया !! आएगा लल्ला वो दौर ,फिर लगेगा ज़जिया !! अचरज होगा जान सुल्ताना थी कभी रज़िया!! भला बाम्हन हो, छत्री या भोला कोई बनिया!! न भाती किसी को कोख से निकली बिटिया !!     

हाँ भाई देखी है .........

हाँ भाई देखी है मैने गरीबी देखी है फटी साड़ी किसी की तन छुपाने की कोशिश देखी है . सर्द  रात में कहीं एक आड़ मिल जाने की आस देखी है . फटे पुराने टाट पर कभी नींद से बतियाती आँखें देखी हैं. नाले के किनारे कहीं दूर ,तंग कुचैली गलियों में बीतती जिंदगी देखी है . हाँ भाई देखी है मैने मज़बूरी देखी है एक अदद चाय और बंद में बादिन चलने वाली नौकरी देखी है . पहन कर मालिक की उतरन कभी चहरे पर आई ख़ामोशी देखी है . धुंवे भरे चूल्हे पर किसी सिकती रोटी में चोकर की बढ़ती तादाद देखी है . आगे बढ़ते ज़माने के साथ ,सिकुड़ते जाते आशियानों की चार दीवार देखी है . हाँ भाई देखी है मैने बेकारी देखी है सडकों पर, बसों पर भिनभिनाती हुयी, भटकती जूतियाँ देखी हैं . भोर सुबह चौराहों पर काम तलाशती कुछ मेहनतकश लाचारी देखी है. माँगे हुए अखबार में इश्तहार तलाशती कुछ गुमसुम उंगलियाँ देखी हैं . बाप से नज़रें चुराती,ठोकर-ए - हालत खाकर घर लौटी बेबस जवानी देखी है . हाँ भाई देखी है मैने गरीबी देखी है मैने मज़बूरी देखी है मैने बेकारी देखी है …

ये समाज ???

चित्र
ये तीन टाँगों पर लंगड़ाते श्वान सा शिथिल समाज , क्यों है बैठा अब ये इतना विचलित सा , समाज ? इस बार तो फिर अच्छा चल पड़ा है काम काज , खाली ठेकेदार को सीधा दुनिया का मिला ठेका आज ।  ब्याह से भागती बेटियों को पकड़ना है इनका काम , बचकर रहे ,रहनुमा-ऐ-सरकार ,कह दिया खुले आम ।  'बिगड़ती' बालाओं  को  सुधारते ये  सरेशाम , गालियों ,तानों से न हो तो फाँसी के फंदे से लेते काम ।  ये भटकते भिक्षुक सा बेचैन समाज  क्यों है इतना ये संगदिल समाज ? इस बार तो हो रहे राजनीतिज्ञ भी साथ , जाति को तो नंबर प्लेट बनाने की है बात ।  पहले ही बता दो मेरे  भाई अहीर, छत्री हो या चर्मकार , फिर ना कहना ,आरक्षण नहीं बाँटा ,किया अत्याचार ।  जाति में ही सब रहेगा ,जाति में ही सब बँटेगा , यही है हमारा किला ये हमारी चार दीवार ।  रक्त 'गंदा' जो किया किसी ने तो , कंठ देगी काट उसका ये तीक्ष्ण तलवार ।  ये तीन टाँगों पर लंगड़ाते श्वान सा शिथिल समाज , क्यों है बैठा अब ये इतना विचलित सा , समाज ???

तेरा क्या होगा ...... बॉलीवुड ???

अब हमारे देश के 'प्रतिभावान' निर्देशकों में से एक महेश भट्ट जी का बयान सुनिए "भारत में हॉलीवुड की फिल्मों का हिन्दी में डब होना प्रतिबंधित होना चाहिए ,यह हमारी मातृभाषा है ,हर किसी की बपौती नहीं !"  वाह महाशय आज जब आपके पेट पर लाट पड़ी है तो हिन्दी आपकी मातृभाषा हो गई अन्यथा आप और आपकी बॉलीवुड बिरादरी के दिव्यजन तो फिल्मों के बाहर हिन्दी में बात करना अपनी तौहीन मानते हैं ! कुछ चुनिन्दा लोगों के छोडकर आपके कलाकार हिन्दी को पढ़-लिख नहीं सकते !आप लोगों ने लैटिन (अँग्रेजी की लिपि) का आंधाधुंद प्रयोग कर लिखित हिन्दी (देवनागरी) को लगभग संग्रहालयों में भेजने लायक बना दिया है!!और आज आप हिन्दी के रहनुमा बनते फिर रहे हैं ??? आज महेश जी का कहना है कि अरबों रुपये कमाने वाली बॉलीवुड की फिल्में आर्थिक रूप से इतनी सुदृढ नहीं होती की वे हॉलीवुड की फिल्मों से मुक़ाबला कर सकें ! क्यों भला ? क्या एक अच्छी मनोरंजक और उच्च स्तर की फिल्म बनाने के लिए मात्र पैसा ही चाहिए होता है ? ध्यानपूर्वक सोचिए और बताइये कि आपकी इंडस्ट्री में और कोई कमी नहीं ? क्या आप विदेशी फिल्मों की स्क्रिप्ट नही