माँ



कलम हाथ से पकड़ी न जाती
लिख तो लेता पर लिखाई समझ न आती
उन बेमेल हर्फों में माने तेरी डाँट ने भरे थे माँ

बोल न निकलते थे ,तुतलाती थी ज़ुबाँ ,  
चाहते थे कुछ , बोलती थी कुछ ज़ुबाँ
उन नासमझ बोलों में अर्थ तुमने भरे थे माँ. 

हवा से बात करने का शौक था
बाबा से लड़कर साइकिल दिलवाई थी तुमने
हवा में तो उड़वाया तेरे हाथों के सहारे ने माँ      

कहते थे दो बूँद ज़िन्दगी की पीलो
बड़े जतन से खुराक पीने को मनाया था तुमने
तंदुरुस्ती तो तेरी गोद में पीकर आई थी माँ

मफलर दस्ताने लिए सर्दियों से लड़ते थे
बाजार से नई उन लेकर बुना था तुमने
गर्माहट तो उस स्वेअटर को पहनकर आती थी माँ






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