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तेरा क्या होगा ...... बॉलीवुड ???

अब हमारे देश के 'प्रतिभावान' निर्देशकों में से एक महेश भट्ट जी का बयान सुनिए "भारत में हॉलीवुड की फिल्मों का हिन्दी में डब होना प्रतिबंधित होना चाहिए ,यह हमारी मातृभाषा है ,हर किसी की बपौती नहीं !"  वाह महाशय आज जब आपके पेट पर लाट पड़ी है तो हिन्दी आपकी मातृभाषा हो गई अन्यथा आप और आपकी बॉलीवुड बिरादरी के दिव्यजन तो फिल्मों के बाहर हिन्दी में बात करना अपनी तौहीन मानते हैं ! कुछ चुनिन्दा लोगों के छोडकर आपके कलाकार हिन्दी को पढ़-लिख नहीं सकते !आप लोगों ने लैटिन (अँग्रेजी की लिपि) का आंधाधुंद प्रयोग कर लिखित हिन्दी (देवनागरी) को लगभग संग्रहालयों में भेजने लायक बना दिया है!!और आज आप हिन्दी के रहनुमा बनते फिर रहे हैं ??? आज महेश जी का कहना है कि अरबों रुपये कमाने वाली बॉलीवुड की फिल्में आर्थिक रूप से इतनी सुदृढ नहीं होती की वे हॉलीवुड की फिल्मों से मुक़ाबला कर सकें ! क्यों भला ? क्या एक अच्छी मनोरंजक और उच्च स्तर की फिल्म बनाने के लिए मात्र पैसा ही चाहिए होता है ? ध्यानपूर्वक सोचिए और बताइये कि आपकी इंडस्ट्री में और कोई कमी नहीं ? क्या आप विदेशी फिल्मों की स्क्रिप्ट नही

तैयार हों जाइए "फेसबुक.कॉम " के लिए !!

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जी हाँ आखिरकार अब आपकी पसंदीदा साईट आपकी पसंदीदा भाषा में भी अपना वेब पता(डोमेन नेम ) उपलब्ध करा सकेंगे ! कई वर्षों से गैर अंग्रेजी या सटीक रूप से कहें तो गैर लैटिन (लैटिन लिपि का उपयोग करने वाली ) भाषाओँ को इन्टरनेट में शर्मसार होना पड़ता था , क्योंकि इन्टरनेट का जनक और और सबसे बड़ा प्रायोजक अमेरिका ही है और उसने इन्टरनेट में  अंग्रेजी और लैटिन लिपि को ही बढावा दिया. इसी का फल था कि कुछ वर्ष पहले तो शत प्रतिशत कार्य इन्टरनेट पर लैटिन लिपि में ही होता था जिससे अंग्रेजी और अन्य यूरोपीय भाषाओँ का काम तो निकल जाता था परन्तु हिंदी तमिल सरीखी भारतीय भाषाओँ को लाचारी से अपना अपमान देखना पड़ता था .फिर धीरे धीरे भारतीय भाषाओँ के फॉण्ट विकसित किये गए और उन्ही के अनुरूप कुंजी पटल (कीबोर्ड ) बनाये गए , सीके कारण बहुत थोड़ा ही साही भारतीय भारतीय भाषायें भी इन्टरनेट के समाज से रूबरू हुईं . फिर एक नई क्रान्ति आई हाल ही में जब यूनिकोड टाइपिंग का विकल्प उपलब्ध हुआ और जिन्हें गैर अंग्रेजी कुंजी पटल पर कार्य करना नहीं आता उन्हें भी हिंदी जैसी भाषाओँ को लिखने का मौका मिला (गूगल ट्रांसलिटरेट सरीखे सोफ्

देवनागरी का उपयोग कौन कर रहा है ?

कई दिनों से 'देवनागरी लिपि', जो कि हमारे देश की कई भाषाओँ(हिंदी सरीखी ..) की आत्मा है , की ज़र्ज़र होती स्थति देख कुछ लिखने का मन कर रहा था तो आज उदगार प्रकट  कर ही रहा हूँ . यदि आप वर्तमान में देवनागरी को सबसे अधिक सम्मान देने वाली भाषा खोजेंगे तो वह है मराठी और नेपाली .इन दोनों भाषाओँ ने कभी भी अपनी लिपि (देवनागरी) से नाता नहीं तोड़ा और इस "लैटिन वादी साम्राज्यवाद " का सामना कर रहे विश्व में भी वह उससे चोली दामन का साथ बनाये हुए हैं .अगर आप पुणे की आम रिहायशी गलियों का दौरा करेंगे तो आपको दिल्ली के फाटकों पर "आधुनिकता" की प्रदर्शक  अंग्रेजी की लैटिन लिपि   में मायूस सा  "kapoors"  या  "Vermas" उभरा  नहीं मिलता बल्कि अपनी माटी की खुशबू का अहसास  देने वाली देवनागरी में "बद्री निवास", "तरुनालय " ,"त्रिवेणी" सरीखे नाम पट्ट लिखे मिलेंगे .आप में से कई विश्वास नहीं करेंगे पर महाराष्ट्र में अग्रेजियत में डूबी बहुराष्ट्रीय कंपनिया (MNCs, जो की प्रायः अंग्रेजी के सबसे बड़े निर्यातक अमेरिकी ही होती हैं ) भी देवनागरी में

जंतर मंतर में अन्ना के साथ एक दिन

भारत छोड़ो आंदोलन लें या खिलाफत लहर ,जे पी क्रांति लें या लोहियावाद किसी भी अन्य आन्दोलन को लें यह वर्तमान में चल रहा "अन्ना आन्दोलन " अपने में अनुपम तो है ही इसके साठ साथ इसमें जन भागीदारी को भी कोई नकार  नहीं सकता .ख़ैर जहाँ तक इसके स्वरुप की बात है तो कई विशेषज्ञ तो इसे कोई आन्दोलन कहने से भी इनकार कर रहे हैं और इसे मात्र एक लहर का दर्ज़ा दे रहे हैं  अब जो भी हों मैं यह लेख ऐसा कोई बुद्धिजीवी वार्तालाप चलाने  के लिए नहीं लिख रहा हूँ ,अपितु आपको एक रिपोर्टर की ही तरह जंतर मन्तर पर अन्ना हजारे के अनशन के दौरान बिताए गए एक दिन का हाल ए बयां सुनाने के लिए लिख रहा हूँ .तो चलिए जनाब शुरू करते हैं अपनी दास्तानगोई. भीड़ भाड़ वाला एक दिन दिल्ली की सड़कों में रोज़ाना की मानिंद अस्त व्यस्त ट्रैफिक ,किसी आम दिन की ही तरह ठुसी हुई मेट्रो रेलें , सड़कों में भीड़ ,अस्पातालों में भीड़ ,दफ्तरों में भीड़ ,विद्यालयों में भीड़ ...अब आप कहेंगे इन  सब जगहों में  भीड़ का होना तो कोई आम बात नहीं और फिर दिल्ली जैसे डशहर में जो कि एक सो बीस करोड़ की आबादी के देश की राजधानी हों और खुद भी डेढ़ कर

चलिए शुरू करते हैं .........

आज अपना पहला व्यतिगत ब्लॉग(सामूहिक  तो लिखता ही था ) लिखना प्रारंभ कर रहा हूँ तो प्रसन्नता तो अवश्य ही है पर साथ में उत्साह भी है .पर यह उत्साह इतना भी नहीं है कि प्रेमचंद के पात्र प. मोटेराम शास्त्री की तरह नई डायरी लिखने के उपलक्ष में पाठकों के लिए एक पूरी कहानी ही लिख दी जाये (जो कि आजकल के पाठक शायद पढ़े भी ना !) .अब इसे बिस्मिल्लाह कहें या श्री गणेश पर इतना तो तय है कि इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने विचारों को रस्सी कूद करवाता रहूँगा और बिलकुल , आप लोग भी इस वर्जिश में बकायदा निमंत्रित हैं.